हमारे घर के ठीक सामने एक बिल्डिंग बन रही है, जहां पतियों के साथ पत्नियां भी मजदूरी करतीं हैं। पति उठते हैं और मजदूरी में लग जाते हैं। औरतें उठती है पति- बच्चों के लिए खाना बनातीं है, बच्चे नहलातीं-धुलातीं हैं, कपड़े धोती हैं, बर्तन-चौका कर के फिर मजदूरी पर लग जातीं हैं। शाम को थके हारे पति घर पहुंचते ही दारू पी कर रिलैक्स करते हैं और ये पत्नियां खाना, चूल्हा-चौका पर लग जाती, फिर शायद अपने पतियों की शारीरिक ज़रूरतें भी पूरा करतीं होंगी।(ये इतना थक जातीं होंगी की सेक्स एन्जॉय नहीं झेलती होंगी) फिर जब मजदूरी मिलती होंगी तो ये मजदूरी भी पति के हाथ पर रख देतीं होंगी।
ये मज़दूरिने अवैतनिक होती हैं, इन्हें इन कामों का कोई वेतन नहीं मिलता। महिलाएं दलितों में दलित और मजदूरों में मजदूर है और आप बोल रहे हैं कि अब बराबरी है दोनों जेंडर्स में, अगर ये बराबरी है तो हमें "समानता में भी समानता चाहिए"
हमें हर पल, हर मौके पर याद दिलाने की ज़रूरत होती है कि अब भी महिलाओं को वो स्वतंत्रता और अधिकार नहीं मिले, जो कागज़ों में लिखित है क्योंकि इन लिखित अधिकारों को सामाजिक मान्यता जो प्राप्त नहीं है। तो सबसे पहले खुद से स्वीकार कीजिये कि औरतें मजदूरों में मजदूर हैं, मजदूर भी इसे शोषण नही मानते। कम से कम आप तो मानिए कि "हां, ज़मीनी स्तर पर अब भी औरतें शोषिता हैं"
(यही सब गृहिणी और कामकाजी औरतों के साथ होता है लेकिन पितृसत्ता ने औरतों को भी निम्न, मध्यम, उच्च, ग्रामीण, शहरी, शिक्षित और अशिक्षित महिला में बांट दिया। किसी को महिमामंडित किया और किसी को तुच्छ प्रूफ किया)
अब एक गृहिणी (जो पति की नजरों में पूरे दिन खाली मजे मारती है) को ही लीजिये। दिनभर घर के कामों में (घर के काम बहुत छोटा लगता है ज़रा विस्तार से लिखते हैं), पति के आफिस जाने से पहले उठ कर उसके चायपानी, नाश्ते की व्यवस्था करना, बर्तन-भांडे, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, बच्चों-पति का टिफ़िन तैयार करना (घर पर अन्य मेम्बर्स हुए तो उनका नाश्ता भी तैयार करना) बच्चों को स्कूल छोड़ना, (या स्कूल बस तक छोड़ना) कपड़े-लत्ते धोना, साफ-सफाई, झाड़ू-पोछा (अगर बुजुर्ग हुए तो उनकी देखभाल), आह! अभी कमर सीधी करने का वक़्त मिला तो घड़ी ने लंच बनाने का आर्डर दे दिया। अब फिर से किचन ने अपनी ओर खींचना स्टार्ट कर दिया। फिर बच्चों के लिए लंच बनाना, बच्चों को चेंज करवा कर उन्हें लंच करवाना, उनके होम वर्क्स करवाना, पढ़ाना, लंच के बर्तन। अरे! वक़्त तो तेज़ी से भाग निकला पति के आने का टाइम हो गया, अब पति के लिए चाय नाश्ता। बेचारे पति थके हारे आए हैं तो उनके लिए चाय नाश्ता तो बनता है न। खैर! शायद अब आगे की दिनचर्या बताने की ज़रूरत नहीं क्योंकि मैं भी थक गई गिनाते-गिनाते। ये सब वो अवैतनिक करती है, जिसमे कई बार उसे ताने सुनने पड़ते हैं कि वो बैठ बैठ कर खा रही है, पूरे दिन करती ही क्या है?
हालांकि कामकाजी सभी महिलाएं होतीं हैं लेकिन जो कहीं वैतनिक कार्य करती हैं उन्हें वर्किंग वीमेन कहा जाता है। उनकी मजदूरी भी डबल हो जाती घर और आफिस दोनों में बैलेंस करना यही नहीं आफिस में यौन शोषण, छेड़छाड़ जैसे डिप्रेशन से भी कई बार गुजरना पड़ता है।
ग्रामीण औरतें घर के साथ साथ, मवेशियों की देख रेख और खेतों में 6 गज की लिपटी साड़ी या भारी घाघरे में भरी गर्मी में कार्य करती अक्सर दिख जाएंगी, जो अवैतनिक ही होता।
#दुनियाकेमजदूरोंएकहो (पहले अपनी बीवियों को तो शामिल करो, जो तुमसे भी बड़ी मज़दूरिने हैं। जिन्हें उनका मेहनताना कभी मिला ही नहीं। जिसका श्रम कभी श्रम में गिना ही नहीं गया।
#दुनियाकीमज़दूरनियोंएकहो (मजदूर तो फिर संगठित हैं, बस मज़दूरिने मजदूरी में रमी है जिसकी मजदूरी किसी गिनती में है भी नहीं।)
मज़दूर दिवस की सुभकामनाये